मैंने बिहार को राष्ट्रीय स्तर की तैराकी प्रतियोगिताओं में आठ पदक जीतकर दिए। सरकार किसी की भी रही मगर मेरी प्रतिभा को सम्मान नहीं मिला। भूखे म’रने की नौ’बत आ गई थी। दो दशक से चाय दुकान चलाकर पेट पाल रहा हूं। मेरे बेटे सोनू कुमार यादव और सन्नी कुमार यादव, दोनों ही बेहतरीन तैराक हैं, लेकिन वे मेरी तरह ‘चायवाला’ बनकर नहीं रहना चाहते थे, इसलिए उन्होंने तैराकी छोड़ दी।’राजधानी के नया टोला नु’क्कड़ पर 1998 से चाय दुकान चला रहे नेशनल तैराक गोपाल प्रसाद यादव के पास जब जागरण की टीम पहुंची तो उनका द’र्द कुछ यूं छल’क पड़ा।
गोपाल कहते हैं, 1987 से 89 तक लगातार तीन साल बिहार को दो स्वर्ण पदक समेत आठ बार सम्मान दिलाया। 1990 में प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं ले पाया, क्योंकि खाने के लिए मात्र दस रुपये मिलते थे। इस बीच अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी आयोजनों में शरीक हुआ। चौथे, पांचवें स्थान पर रहा। इसका कारण यह है कि हम गंगा में तैराकी करते थे और वहां स्विमिंग पूल मिलता था। मुझे याद है 1974-75 की बात। इंदिरा गांधी के शासनकाल में तैराकी के लिए 1500 रुपये दिए जाते थे। 1990 में घर की आर्थिक स्थिति चरमरा गई, तब सरकारी नौकरी के लिए प्रयास शुरू किया। पोस्टल विभाग की नौकरी के लिए संत माइकल स्कूल में इंटरव्यू देने गया मगर वहां के अधिकारी ने फाइल ही उठाकर फें’क दी।
1998 में नया टोला के मुहाने पर चाय का स्टॉल लगाया। दो-चार पैसे आने लगे। दो वक्त का खाना मिलने लगा।गोपाल कहते हैं, दर्जनों पत्र- पत्रिकाओं में मेरी व्यथा पर लेख छपे। जब मैंने चाय दुकान खोली, तब लालू प्रसाद मुख्यमंत्री थे। वे लाल बत्ती वाली गाड़ी से मेरी दुकान पर आए और मुझे उसी गाड़ी पर बैठकर सचिवालय ले गए। मुझसे पूछा गया कि कहां तक पढ़े हो। बताया, नौवीं पास हूं। जवाब मिला, आपको नौकरी का पत्र भेजा जाएगा। कुछ महीने बाद तत्कालीन खेल मंत्री भी आए। फिर आश्वासन मिला पर आज तक नौकरी नहीं मिली।
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