उमरिया. मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh News) के उमरिया जिले के लिए मोहर्रम खास है. यहां 200 सालों की ऐसी परंपरा आज भी जीवित है, जिस पर यकीन करना मुश्किल है. इस आयोजन में सामाजिक एकता का अनूठा संगम देखने को मिलता है. ये आयोजन यहां इसलिए खास है, क्योंकि बाबा हुजूर की सवारी किसी मुस्लिम को नहीं, बल्कि हिंदू समाज के एक ठाकुर परिवार को आती है.
इस बात पर भले ही यकीन न हो, लेकिन ये वास्तविकता है. मोहर्रम में मुस्लिम समाज के साथ-साथ हिन्दू समाज के लोग भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. जानकार बताते हैं कि सबसे पहले 1882 में बाबा की पहली सवारी हिन्दू समाज के ही माधव सिंह को आई थी. उसके बाद उन्हीं के परिवार के बाबा फूल सिंह और अब बाबा सुशील सिंह को सवारी आती है. इससे यहां दोनों कौमों में एकता बनी हुई है.
इस वजह से बढ़ती जा रही प्रतिष्ठा
मोहर्रम कमेटी के खादिम मेंहदी हसन बताते हैं कि मोहर्रम की दूसरी खास पहचान मुरादगाह है. यहां सवारी आने के दौरान बाबा हुजूर से मुरादें मांगने वालों की मनोकामना पूरी होती है. इससे यहां निकलने वाले जलसे में भारी भीड़ लग जाती है. इसस यहां की प्रतिष्ठा लगातार बढ़ती जा रही है. आज आलम ये है कि बाबा से मुराद लेने यहां देश के कोने-कोने से लोग पंहुचते हैं. रीवा के केदारनाथ कुशवाहा का कहना है कि कौमी एकता एवं गंगा जमुनी तहजीब की मिसाल है उमरिया का मोहर्रम. यह पूरे देश में अलग स्थान रखता है. यही वजह है कि यहां का मुस्लिम समाज भी हिन्दुओं के धार्मिक पर्व में उसी सदभावना से शामिल होता है, जैसे मोहर्रम में हिन्दू शामिल होते हैं.
हज़रत इमाम हुसैन की शहादत की याद में होता है मुहर्रम
आपको बता दें कि इस्लामी कैलेंडर में नए साल की शुरुआत मुहर्रम से होती है. इस महीने की बहुत अहमियत है. इस माह के 10वें दिन आशुरा मनाया जाता है. यह इस्लाम मजहब का प्रमुख महीना है. इस महीने में दुनिया भर में कर्बला के शहीदों की याद में सभाएं होती हैं और जुलूस निकाले जाते हैं. मुहर्रम अंतिम पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद में होता है. दुनिया भर में मुसलमान मुहर्रम की 9 और 10 तारीख को रोज़ा रखते हैं और मस्जिदों, घरों में इबादत करते हैं.
इसलिए मनाते हैं मुहर्रम
कर्बला, जहां यज़ीद मुसलमानों का ख़लीफ़ा बन बैठा था. वह पूरे अरब में अपना वर्चस्व फैलाना चाहता था, जिसके लिए उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती इमाम हुसैन थे, जो किसी भी परिस्थिति में यज़ीद के आगे झुकने को तैयार नहीं थे. इससे यज़ीद के अत्याचार बढ़ने लगे. ऐसे में इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ मदीना से इराक के शहर कूफा जाने लगे. मगर रास्ते में यज़ीद की सेना ने कर्बला के रेगिस्तान में इमाम हुसैन के कारवां को रोका और फिर यहां इमाम हुसैन की शहादत की दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी. उस दिन से मुहर्रम इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत के रूप में होता है.
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