स्कूल जाए के बाद त दूर बा खाना खाए के नईखे, कमायेम ना त खाएम कईसे” यह दर्द भरी दास्तान मानव तस्करों से छपरा जिले में मुक्त कराये गए उन 7 बाल मजदूरों के हैं। सभी की लगभग मिलती-जुलती कहानी। मां बाप भी हैं लेकिन साथ में भयंकर गरीबी भी है। किसी के पास खेती बाड़ी है तो किसी के मां बाप खेतों में काम करते हैं।
जिस दिन उन्हें रोजी मिल गई तो आटा चावल आ गया, नहीं तो फिर उस दिन रोजा रहना पड़ गया। वही उपवास और पेट का दर्द। गरीबी निगोड़ी चीज ही ऐसी है। छपरा में मानव तस्करों से मुक्त कराए गए सातों बच्चों की कहानी वैसी हीं है। सभी बच्चों की उम्र करीब 10 से 15 साल के बीच ही है। 7 बच्चों में से 4 बच्चे टिंकू, मिंटू, चिंटू, चिंटू (सभी काल्पनिक नाम) खगड़िया के रहने वाले हैं. उन्होंने बताया कि परिवार गरीबी के दौर से गुजर रहा है खाने के लाले पड़ जाते हैं ऐसे में वह कमाने नहीं जाए तो क्या करें?


क्योंकि वह भी चाहते हैं कि इस स्थिति को बदला जाए। वही 3 बाल मजदूर राजू, रवि, शशि (सभी काल्पनिक नाम) दरभंगा जिले के रहने वाले हैं। सबसे छोटे 10 वर्षीय बालक ने बताया कि उसके पिता का एक हाथ टूट गया है जिससे वह घर में रहते हैं। मां जैसे तैसे खेतों में काम करके घर चलाती है। जिसके कारण उसके पढ़ाई का खर्च तो दूर खाने के लाले पड़े रहते हैं। ऐसी स्थिति में वह कमाकर अपना और घर का खर्च निकालना चाहता है।


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